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प्रतिदिन एक श्लोक पढ़ें श्रीमद्भगवद्गीता से (तात्पर्य सहित) | कृप्या retweet और follow करे |

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प्रश्न ६.२०-२३(उत्तर ट्वीट करें)

प्रश्न १: पतञ्जलि की योगपद्धति का वास्तविक प्रयोजन क्या है ? अद्वैतवादी इसे क्यों स्वीकार नहीं करते ?

प्रश्न २: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने धर्म का किस प्रकार पालन करता है ?

हमारी एंड्राइड एप्प यहाँ से डाउनलोड करें :
Bhagavad Gita App

प्रश्न ६.२०-२३(उत्तर ट्वीट करें) प्रश्न १: पतञ्जलि की योगपद्धति का वास्तविक प्रयोजन क्या है ? अद्वैतवादी इसे क्यों स्वीकार नहीं करते ? प्रश्न २: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने धर्म का किस प्रकार पालन करता है ? हमारी एंड्राइड एप्प यहाँ से डाउनलोड करें : @BhagvadGitaApp
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6.20-23. रोपरमते चित्तं निरुद्धं योग सेवया |
यत्र चैवत्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति || २० ||

सुख मात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् |
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्र्चलति तत्त्वतः || २१ ||

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यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यास्मन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते || २२ ||

तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् || २३ ||

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६.२०-२३ : सिद्धि की अवस्था में, जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है |

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इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपमें आनन्द उठा सकता है | उस आनन्दमयी स्थिति में वह दिव्य इन्द्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है |

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इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता | ऐसी स्थिति को पाकर मनुष्य बड़ीसे बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता | यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुःखों से वास्तविक मुक्ति है |

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योगाभ्यास से मनुष्य भौतिक धारणाओं से क्रमशः विरक्त होता जाता है | यह योग का प्रमुख लक्षण है | इसके बाद वह समाधि में स्थित हो जाता है जिसका अर्थ यह होता है कि दिव्य मन तथा बुद्धि के द्वारा योगी अपने आपको परमात्मा समझने का भ्रम न करके परमात्मा की अनुभूति करता है |

योगाभ्यास से मनुष्य भौतिक धारणाओं से क्रमशः विरक्त होता जाता है | यह योग का प्रमुख लक्षण है | इसके बाद वह समाधि में स्थित हो जाता है जिसका अर्थ यह होता है कि दिव्य मन तथा बुद्धि के द्वारा योगी अपने आपको परमात्मा समझने का भ्रम न करके परमात्मा की अनुभूति करता है |
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पतञ्जलि पद्धति में दिव्य आनन्द को स्वीकार किया गया है, किन्तु अद्वैतवादी इस दिव्य आनन्द को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उन्हें भ्रम है कि इससे कहीं उनके अद्वैतवाद में बाधा न उपस्थित हो जाय |

पतञ्जलि पद्धति में दिव्य आनन्द को स्वीकार किया गया है, किन्तु अद्वैतवादी इस दिव्य आनन्द को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उन्हें भ्रम है कि इससे कहीं उनके अद्वैतवाद में बाधा न उपस्थित हो जाय |
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पुरुषार्थ का तात्पर्य धर्म, अर्थ, काम तथा अन्त में परब्रह्म से तादात्म्य या मोक्ष है | अद्वैतवादी परब्रह्म से इस तादात्मय को कैवल्यम् कहते हैं | किन्तु पतञ्जलि के अनुसार कैवल्यम् वह अन्तरंगा या दिव्य शक्ति है जिससे जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति से अवगत होता है |

पुरुषार्थ का तात्पर्य धर्म, अर्थ, काम तथा अन्त में परब्रह्म से तादात्म्य या मोक्ष है | अद्वैतवादी परब्रह्म से इस तादात्मय को कैवल्यम् कहते हैं | किन्तु पतञ्जलि के अनुसार कैवल्यम् वह अन्तरंगा या दिव्य शक्ति है जिससे जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति से अवगत होता है |
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निर्वाण के बाद आध्यात्मिक कार्यकलापों की या भगवद्भक्ति की अभिव्यक्ति होती है जिसे कृष्णभावनामृत कहते हैं | भागवत के शब्दों में – स्वरूपेण व्यवस्थितिः– जीवात्मा का वास्तविक जीवन यही है | भौतिक दूषण से अध्यात्मिक जीवन के कल्मष युक्त होने की अवस्था माया है |

निर्वाण के बाद आध्यात्मिक कार्यकलापों की या भगवद्भक्ति की अभिव्यक्ति होती है जिसे कृष्णभावनामृत कहते हैं | भागवत के शब्दों में – स्वरूपेण व्यवस्थितिः– जीवात्मा का वास्तविक जीवन यही है | भौतिक दूषण से अध्यात्मिक जीवन के कल्मष युक्त होने की अवस्था माया है |
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इस अध्याय में वर्णित योगपद्धति के अनुसार समाधियाँ दो प्रकार की होती हैं – सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञातसमाधियाँ| जब मनुष्य विभिन्न दार्शनिक शोधों के द्वारा दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है तो यह कहा जाता है कि उसे सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त हुई है |

इस अध्याय में वर्णित योगपद्धति के अनुसार समाधियाँ दो प्रकार की होती हैं – सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञातसमाधियाँ| जब मनुष्य विभिन्न दार्शनिक शोधों के द्वारा दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है तो यह कहा जाता है कि उसे सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त हुई है |
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आजकल के तथाकथित योगाभ्यास में विभिन्न इन्द्रियसुख सम्मिलित हैं, जो योग के सर्वथा विपरीत है | योगी होकर यदि कोई मैथुन तथा मादकद्रव्य सेवन में अनुरक्त होता है तो वह उपहासजनक है | यहाँ तक कि जो योगी योग की सिद्धियों के प्रति आकृष्ट रहते हैं वे भी योग में आरूढ़ नहीं कहे जा सकते |

आजकल के तथाकथित योगाभ्यास में विभिन्न इन्द्रियसुख सम्मिलित हैं, जो योग के सर्वथा विपरीत है | योगी होकर यदि कोई मैथुन तथा मादकद्रव्य सेवन में अनुरक्त होता है तो वह उपहासजनक है | यहाँ तक कि जो योगी योग की सिद्धियों के प्रति आकृष्ट रहते हैं वे भी योग में आरूढ़ नहीं कहे जा सकते |
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इस युग में योग की सर्वोतम पद्धति कृष्णभावनामृत है जो निराशा उत्पन्न करने वाली नहीं है| एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने धर्म में इतना सुखी रहता है कि उसे किसी अन्य सुख की आकांशा नहीं रह जाती |

इस युग में योग की सर्वोतम पद्धति कृष्णभावनामृत है जो निराशा उत्पन्न करने वाली नहीं है| एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने धर्म में इतना सुखी रहता है कि उसे किसी अन्य सुख की आकांशा नहीं रह जाती |
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जब तक यह शरीर रहता है तब तक मनुष्य शरीर की आवश्यकताएँ – आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन – को पूरा करना होता है | किन्तु को व्यक्ति शुद्ध भक्तियोग में अथवा कृष्णभावनामृत में स्थित होता है वह शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय इन्द्रियों को उत्तेजित नहीं करता |

जब तक यह शरीर रहता है तब तक मनुष्य शरीर की आवश्यकताएँ – आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन – को पूरा करना होता है | किन्तु को व्यक्ति शुद्ध भक्तियोग में अथवा कृष्णभावनामृत में स्थित होता है वह शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय इन्द्रियों को उत्तेजित नहीं करता |
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प्रश्न ६.१९ (कृपया उत्तर ट्वीट करें)

प्रश्न १ : युञ्जतः शब्द का क्या अर्थ है ?

कृपया पूरा श्लोक यहाँ पढ़ें : gloriousgita.com/verse/hi/6/19

कृपया हमारी एंड्राइड एप्प यहाँ से डाउनलोड करें :
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प्रश्न ६.१९ (कृपया उत्तर ट्वीट करें) प्रश्न १ : युञ्जतः शब्द का क्या अर्थ है ? कृपया पूरा श्लोक यहाँ पढ़ें : gloriousgita.com/verse/hi/6/19 कृपया हमारी एंड्राइड एप्प यहाँ से डाउनलोड करें : @BhagvadGitaApp
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६.१९. यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता |

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः || १९ ||

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६.१९ : जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक हिलता-डुलता नहीं, उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्मतत्त्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है |

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तात्पर्य :

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने आराध्य देव के चिन्तन में उसी प्रकार अविचलित रहता है जिस प्रकार वायुरहित स्थान में एक दीपक रहता है |

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