कितनी अजीब बात है कि....गैरों की नजर में थोड़ा सा अपर उठने के लिये अपनों को नजर से गिरा देने का नया रिवाज बनता प्रतीत हो रहा है इससे उसका तो थोड़ा भला हो जाता है लेकिन इंसानियत लहूलुहान हो जाती है
प्रेम होने जाने के उपरांत देह से एक विशिष्ट प्रकार की रिसती हुई प्राकृतिक सुगंध अपनी ओर आकर्षित करती है सुकोमल मन अठखेलियां करता सहर्ष उसी ओर होता चला जाता है
प्रेम के नाम पर छला गया हृदय चूर चूर हो जाता है पुनः प्रेम मिलने पर पुलकित तो हो जाता है किन्तु टूटन की पुरानी टीस ऱहऱह कर उद्वेलित करती है और उलाहना भी देती रहती है अरे बेदर्दी...!! तुमने ऐसा कृत्य किया ही क्यूँ था
किताब पढ़ते एक पंक्ति पर नजर रुक गईं लिखा था.....!! जो बदल रहा उसपे तुम्हारा कोई जोर नहीं ये जो दुनिया है, इतनी छोटी भी नहीं है कि प्रेम करने के लिये एक अदद इंसान न मिले